बुधवार, 27 मई 2015

क्या राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की कोई अहमियत है?

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग

      आदरणीय मित्रो! हम मानते हैं कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की अहमियत असीम एवं अमूल्य है। देश का कोई भी नागरिक अपने मानवाधिकारों को हासिल करने के लिए इस आयोग की शरण ले सकता है। यही सोचकर गाँव फतेहपुर (झाड़सा) गुड़गाँव के पीड़ित 250 गरीब पिछड़े कश्यप परिवार गत 12 अप्रैल, 2015 को मानवाधिकार आयोग, नई दिल्ली की शरण में पहुँचे थे और बेहद मार्मिक फरियाद दर्ज करवाई थी कि उन्हें हुडा विभाग ने पुलिस की बर्बर कार्यवाही के जरिये दिनांक 11 अप्रैल, 2015 को गैर-कानूनी तरीके से उजाड़ दिया है। इस फरियाद की संदर्भ संख्या 3828/7/5/2015 है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सम्बंधित अधिकारियों को चार सप्ताह के अन्दर जवाब देने के आदेश जारी किये। कानूनी-कायदे से जवाब 10 मई, 2015 तक मिल जाना चाहिये था। लेकिन, जवाब नहीं मिला। इसके विपरीत, 15 मई, 2015 की सुबह 2500 पुलिसकर्मियों की फौज ने बड़े सवेरे गाँव के 250 परिवारों पर धावा बोल दिया और बेहद निर्दोष, मासूम एवं अबोध बच्चों सहित प्रसूताओं, बुजुर्गों और महिलाओं पर जमकर कहर ढ़ाया, दर्जनों आँसू गैस के गोले छोड़े, सैंकड़ों गोलियां फायर की व लाठियों से बड़ी बेहरमी से पीटा। इसके बाद तोड़े गए मकानों को और सभी सामानों को आग के हवाले कर दिया, कीमती सामान व जेवर आदि को लूट लिया गया और बचे सामान को तोड़फोड़कर मलबे में तबदील करके मिट्टी में दबा दिया। 50 से अधिक लोगों को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया। बाकी लोगों को भूख-प्यास व ईलाज के अभाव में मरने के लिए छोड़ दिया गया। आज भी पीड़ित लोग अपने उजड़े हुए मकानों के आसपास के इलाके के गन्दे स्थानों पर बेहाल व मरणासन्न हैं। पीड़ित 250 गरीब परिवार गत 21 मई, 2015 को एक महापंचायत बुलाकर अपनी पीड़ा बयां भी कर चुके हैं। जिला प्रशासन व प्रदेश सरकार ने उनकीं कोई सुध नहीं ली है। पीड़ित मानवाधिकार आयोग को 16 मई, 2015 को एक दिन पूर्व हुई पुलिस की बर्बर कार्यवाही से अवगत करवाते हुए पुनः न्याय दिलाने व उनकीं सुध लेने की फरियाद कर चुके हैं। लेकिन, इन सबके बावजूद, मानवाधिकार आयोग की वेबसाईट पर 27 मई, 2015 तक फरियाद पर मांगे गऐ जवाब को प्रतीक्षा सूची में दर्शा रहा है, अर्थात सम्बंधित प्रशासन ने अभी तक मानवाधिकार आयोग को पीड़ितों की फरियाद व शिकायत पर जवाब देना जरूरी नहीं समझा है। उधर, पीड़ित बच्चे, बुजुर्ग, महिलाएं, युवा आदि सब मानवाधिकार आयोग की मदद की आस लिए पल-पल आँख बिछाये बैठे हैं और उनके इंतजार में उनकीं आंखे पथरा गई हैं। लेकिन, आयोग की तरफ से एक भी अधिकारी पीड़ितों को मरहम लगाने अथवा दर्द सांझा करने के लिए अभी तक नहीं पहुँचा है। ऐसे में बेहद गम्भीर व यक्ष प्रश्न यह है कि क्या इस प्रकरण के सन्दर्भ में मानवाधिकार आयोग की कोई अहमियत रह जाती है? क्या मानवाधिकार आयोग को पीड़ितों के मामले के प्रति पूरी गम्भीरता नहीं दिखानी चाहिये? यदि आयोग पीड़ितों की उम्मीदों पर खरा नहीं उरतता है तो क्या इससे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की गरिमा एवं उसकी साख का आँच नहीं आयेगी? क्या राज्य व केन्द्र सरकारें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आदेशों को गम्भीरता से लेती भी हैं या नहीं? यदि हाँ तो फिर तय समयावधि में पीड़ितों को न्याय क्यों नहीं मिल रहा है? माफ कीजिए, ये सवाल आयोग की अवमानना के मकसद से नहीं, अपितु, आयोग की महत्ता जानने, सरकारों का उनके आदेशांे के प्रति गंभीरता से लेने व आम लोगों का आयोग के प्रति विश्वास बनाये रखने के मकसद से स्वतः उपज रहे हैं। इस सन्दर्भ में आपके क्या विचार हैं?

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